Gurugram

1947 के विभाजन का दर्द, बुजुर्गों की जुबानी – प्रेम प्रकाश दीवान

Prem Prakash Dewan, 1947

 

गुरुग्राम : 1947 – मेरा जन्म 11 जनवरी 1933 को हिंदुस्तान के (अब पाकिस्तान ) पंजाब के शहर कोट कसरानी तहसील तौंसा जिला डेरा गाजी खान के हुआ | मेरे पिता स्व. श्री मैहर चन्द दीवान एक सुनार का काम करते थे और मेरी माता श्री धर्मदेवी बड़े जमींदार की बेटी थी | मैं अपने शहर में उर्दू मिडिल स्कूल में पढ़ता था और चौथी पास करके तौंसा में अंग्रेजी पढ़ने के लिए आर्य स्कूल SAV (SANGHAR ANGLO VERNACULAR) स्कूल में दाखिल हुआ और बोर्डिंग में रहता था | आठवीं पास करके गवर्नमेंट हाई स्कूल में नौवीं कक्षा में प्रवेश किया और 2 महीने की छुट्टी पर घर आया |

14 अगस्त 1947 को घोषणा हुई “पाकिस्तान बनने की ख़ुशी में सब हिन्दू और मुसलमान घर-2 में दीयें जलाएंगे और जिन घरों में दीये नहीं जलेंगे वहाँ सख्त कार्यवाही होती |” हमारा शहर तुमंगदार के अंडर था जिस को 7 साल की सजा देने का अख्तियार था | उस वक्त तुमंगदार मंज़ूर अहमद खान जो कि मुस्लिम लीग पार्टी से था और उसका चाचा अमीर मोहम्मद खान यूनियननिस्ट पार्टी का लीडर था | मंजूर अहमद खान ने सारे मुसलमानों को सम्मिलित किया और फैसला किया कि हिन्दुओं को शहर से बाहर नहीं जाने दिया जाएगा |

एक-2 हिन्दू को इसी शहर में मार दिया जाएगा, यह सुनकर हम सब घबरा उठे मानो पैरों टेल जमीन खिसक गई हो | मेरे माता-पिता मुझे और मेरे भाई बहनों को मेरे मामा के घर ले लगाये उनके पास बंदूक का लाइसेंस था | छत पर बैठकर पिता और मामा, दिन-रात बन्दूक हाथ में पकडे निगरानी रखे हुए थे | हम में से कोई भी एक पल चैन से न रात को, न दिन को सो पाया | मन में बस मारे जाने का डर था |

जहाँ मंजूर अहमद खान का फैसला था, हम सबको वहीं मार देने का वहीं उनके चाचा-चाची मोहम्मद खान ने मुसलमानों को सम्मिलित किया और फैसला किया कि हिन्दुओं को मारा नहीं जाएगा, उन्हें बाइज्जत तौंसा शरीफ़ पहुँचाया जाएगा | यह सुनकर हमारे जान में जान आई | हमें अपना घर, अपनी दुकान, अपने खेत, अपनी सारी जमीन जायदाद छोड़कर जान बचाते खाली हाथ आना पड़ा |

हम सब को यह लगा कि यह सब कुछ दिनों या शायद कुछ महीनों की बात है और फिर उसके बाद हम अपने घर लौट आयेंगे | | हम सारा सोना दीवारों में और जमीन में दबा कर आये इस डर से कि कहीं कोई और ना लूट ले, किसे मालूम था कि हम एक बार भारत आ जायेंगे तो फिर कभी आपने घर नहीं लौट पायेंगे | जो सोना साथ लाया वो अमीर हो गया और जो पीछे छोड़ आया वो अलग ही तरीके के संघर्ष में जुट गया |

तौंसा शरीफ़ में हम 2 महीने रहे और फिर हमें ट्रकों में भर कर मुज्जफरगढ़ पहुँचाया गया और हम सब ने सर्दी खुले मैदान में बिताई | जो खाना मिला खाया और वहाँ से हमें गोरखा मिलिट्री की निगरानी में रेलगाड़ी से पंजाब के संगरूर लाया गया | मुझे आज भी याद है कि रेलगाड़ी पूरी भरी हुई थी और छत पर भी लोग सवार थे | हमें कहा गया किया कोई भी रेलगाड़ी से नहीं उतरेगा, चाहे जो कुछ हो जाये |

एक आदमी स्टेशन पर पानी पीने के लिए उतरा तो प्लेटफार्म पर तलवार लिए लोगों ने उसे मार दिया | संगरूर में हमें अस्पताल में जगह मिली | एक दिन एक सरदार जमींदार आया और मेरे पिता जी से कहा कि एक बन्दे की जरुरत है | मेरे पिता जी ने मुझे उसके साथ उसके गाँव भेजा | वह रात को मुझ से फसल चोरी करवाता था | मैंने कुछ दिन तो काम किया पर मेरा दिल नहीं माना और मैं वापिस आ गया |

उसके बाद हम संगरूर से अलवर आ गये | उस दिन की बात है जब महात्मा गाँधी को गोली लगी 30 जनवरी 1948 को हमें मालूम हुआ कि हमारे कुछ रिश्तेदार गुड़गाँव में रहते है और फिर हम गुड़गाँव आ गये और उनके साथ गौशाला कैंप के टेंटों में रहे | कुछ समय बाद हमें भीमनगर में सरकार द्वारा दो कोठियां दी गई | मैं उस समय रेलगाड़ी में फल बेच कर पैसे कमाता था और उसी दौरान मैंने नेहरु जी को बहुत नजदीक से देखा था |

एक दिन मंगू नाम का आदमी जो पाकिस्तान में दर्जी था मेरी माँ से बोला कि आप एक जमींदार की बेटी है अपने बेटे को आगे पढ़ाईये | फिर मैंने गुड़गाँव हाई स्कूल में नौवीं क्लास में दाखिला लिया | सुबह स्कूल जाता और शाम को मुंगफलियाँ बेचता |

सन 1950 को 17 साल की उम्र में दसवीं का इम्तिहान प्रथम दर्जे से पास करने के बाद मुझे फरीदाबाद में 3 महीने के लिए क्लेम रजिस्ट्रेशन ऑफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई जहाँ मेरी सैलरी 70 रूपये थी | 3 महीने बाद फिर बेरोजगार उसके बाद मुझे रीजनल टूरिस्ट ऑफिस में दफ्तरी की नौकर मिली जहाँ मैंने टाइपिंग सीखी | उसके बाद मुझे रजिस्ट्रार ऑफिस कोआपरेटिव सोसाइटी में क्लर्क की नौकरी मिली | 1953 में मैं रेलवे में टाइपिस्ट के पद पर चयनित हुआ |

24 मई 1954 को मेरी शादी श्रीमती शांति देवी से हुई | मैंने शॉर्टहैंड की किताब खरीदी और खुद घर पर अभ्यास किय और कभी कॉलेज नहीं गया | पर मेरी अंग्रेजी और शॉर्टहैंड पर अच्छी पकड़ थी | 1958 में यू. पी. एस. सी. में मुझे सीनियर स्टेनोग्राफर की नौकरी मिली | उस समय डायरेक्टर जनरल विजिलेंस, कस्टम एंड सेंट्रल एक्साइज को PA चाहिए था | काफी सीनियर्स के बीच मुझे चुना गया और देखते – 2 मेरे बॉस डायरेक्टर जनरल की बदली हो गई | जाते-2 वो मुझे अपने आखिरी दिनों में मिले और बोले “you are my best friend, philosopher and guide.”

कुछ ही सालों में अस्सिटेंट बन गया | साथ ही शॉर्टहैंड का अपना इंस्टिट्यूट “यूनाइटेड कमर्शियल कॉलेज” अपनी पत्नि के नाम पर खोला | जहाँ मैं शॉर्टहैंड सीखाता था और मेरी पत्नि टाइपिंग सिखाती थी | मेरे काफी विद्यार्थी सेंट्रल गवर्नमेंट, स्टेट गवर्नमेंट में अच्छे पदों पर रिटायर हुए है | मुझे काफी गर्व महसूस होता है और वो जहाँ भी मिलते है मेरे पैर छूकर बोलते है कि मैं जो भी कुछ हूँ आप ही की बदौलत हूँ | जनवरी 1991 को मैं क्लास वन एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर के पद से रिटायर हुआ और बस यही कहूँगा :

हिम्मत ना हारिये, प्रभु न विसारिये,
हँसते मुस्कुराते हुए, ज़िन्दगी गुजरिये,

आज मैं 88 साल का हूँ और 3:00 बजे उठकर सैर करके योग करता हूँ और नहा-धोकर आर्य समाज मंदिर, रामनगर सबसे पहले पहुँचता हूँ | आज मेरे घर के सभी बच्चे, बहुएं अच्छे पदों पर कार्यरत है।

Translated by Google 

Gurugram: 1947 – I was born on January 11, 1933, in the city of Kot Kasrani, Tehsil Taunsa, District Dera Ghazi Khan, Punjab, India (now Pakistan). My father self Mr. Maihar Chand Diwan used to work as a goldsmith and my mother Mr. Dharmadevi was the daughter of a big landlord. I used to study in Urdu middle school in my city and after passing 4th passed Arya School SAV (SANGHAR ANGLO VERNACULAR) school to study English in Taunsa and lived in boarding. Passed eighth and entered Government High School in ninth grade and came home on leave for 2 months.

On August 14, 1947, an announcement was made, “In the happiness of becoming Pakistan, all Hindus and Muslims will light lamps in their homes and strict action will be taken in those houses where lamps are not lit.” Our city was under Tumangdar who had the authority to give 7 years of punishment. At that time Tumangdar Manzoor Ahmad Khan who was from the Muslim League Party and his uncle Amir Mohammad Khan was the leader of the Unionist Party. Manzoor Ahmed Khan included all the Muslims and decided that Hindus would not be allowed to leave the city.

On hearing that one or two Hindus would be killed in this city, we were all horrified as if the ground had slipped behind our feet. My parents took me and my siblings to my maternal uncle’s house who had a gun license. Father and maternal uncle, sitting on the terrace, were keeping vigil day and night with guns in hand. None of us could sleep peacefully for a moment neither at night nor during the day. There was just fear of being killed in my mind.

While Manzoor Ahmad Khan had decided to kill us all there, his uncle and aunt Mohammad Khan included the Muslims and decided that Hindus would not be killed, they would be taken to Taunsa Sharif with dignity. Hearing this, our lives came to life. We had to leave our house, our shop, our fields, all our land and property and come empty handed while saving our lives.

We all felt that it was a matter of a few days or maybe a few months and then after that we would return to our homes. , We buried all the gold in the walls and in the ground, fearing that no one else might loot it, who knew that once we came to India, we would never be able to return home. The one who brought gold with him became rich and the one who left behind got engaged in a different kind of struggle.

We stayed in Taunsa Sharif for 2 months and then we were loaded in trucks and taken to Muzaffargarh and we all spent the winter in the open field. We ate whatever food we got and from there we were brought to Sangrur in Punjab by train under the supervision of Gorkha Military. I still remember that the train was full and there were people on the roof as well. We were told that no one would get off the train, come what may.

When a man got down to drink water at the station, people with swords on the platform killed him. We got a place in the hospital in Sangrur. One day a Sardar Zamindar came and told my father that a servant is needed. My father sent me with him to his village. He used to make me steal crops at night. I worked for a few days but my heart did not agree and I came back.

After that we came to Alwar from Sangrur. It was about the day when Mahatma Gandhi was shot, on 30 January 1948, we came to know that some of our relatives live in Gurgaon and then we came to Gurgaon and stayed with them in the tents of Gaushala Camp. After some time we were given two cells by the government in Bhimnagar. At that time I used to earn money by selling fruits in the train and during that time I saw Nehru ji very closely.

One day a man named Mangu who was a tailor in Pakistan said to my mother that you are the daughter of a landlord, educate your son further. Then I joined Gurgaon High School in class IX. Went to school in the morning and sold peanuts in the evening.

In 1950, at the age of 17, after passing the 10th examination with first class, I got a job as a clerk in the Claims Registration Office in Faridabad for 3 months, where my salary was 70 rupees. Unemployed again after 3 months, after that I got an office worker in Regional Tourist Office where I learned typing. After that I got a job as a clerk in the Registrar’s Office Cooperative Society. In 1953, I got selected as a typist in the Railways.

On May 24, 1954, I got married to Mrs. Shanti Devi. I bought shorthand book and practiced myself at home and never went to college. But I had a good hold on English and shorthand. In 1958, U. P.S. C. I got the job of Senior Stenographer. At that time the Director General Vigilance, Custom and Central Excise wanted PA. I was selected among many seniors and see – 2 my boss director general got transferred. He met me on the way to his last days and said “you are my best friend, philosopher and guide.”

Became an assistant in a few years. Along with this, he opened his own institute of shorthand “United Commercial College” in the name of his wife. Where I used to teach shorthand and my wife used to teach typing. Many of my students have retired on good positions in Central Government, State Government. I feel very proud and wherever they meet, they touch my feet and say that whatever I am is because of you. I retired as a Class I Administrative Officer in January 1991 and would just like to say:

Don’t lose heart, Lord don’t give up
Live life smiling,

Today I am 88 years old and I wake up at 3:00 am, do yoga and take a bath and reach Arya Samaj Mandir, Ramnagar first. Today all the children and daughters-in-law of my house are working in good positions.

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