Gurugram

1947 के विभाजन का दर्द, बुजुर्गों की जुबानी – विशन दास चुटानी

Vishan Das Chutani, 1947

Viral Sach – गुरुग्राम : 1947 – मैं नुतकानी का रहने वाला हूँ मेरा गाँव दरियाए सिन्धु तुग्यानी का शिकार हो गया था और बर्बाद होने के बाद दूसरी जगह सिन्धु नदी से उचित दूरी तथा सुरक्षित स्थान पर बसाया गया था | ऐसा ही डेरा गाजी खान के बारे में बताया जाता है कि इसी गाँव को भी दुबारा बड़ी सूझ-बुझ से बसाया गया था |

इसकी गलियां सीधी और चौड़ी थी, एक सिरे पर खड़ा हो, दूसरा सिरा बखूबी नज़र आता था | इसकी गलियां एक दूसरे को 90 डिग्री के कोण पर काटती थी | इस सीधा और लम्बा चौड़ा बाज़ार था, जिसमें किरयाना, कपड़ा, हलवाई, सुनार, दर्जी तथा नसवार की दुकाने उपलब्ध थी |

गाँव में डी. बी. मिडिल स्कूल, सिविल डिस्पेंसरी और गुरुद्वारा मौजूद था | गाँव के अंदरूनी हिस्से में हिन्दू बस्तियां तथा बाहरी हिस्से में मुस्लिम आबादी आबाद थी | मेरे गाँव निकट की छोटी बस्तियों की आवश्यकता पूरी करता था जैसे कि गाँव फ़तेह खान तुमन, चूनी. काटगढ़, कुहर आदि | मेरे गाँव में वकील, डॉक्टर, हकीम, ब्राह्मण आदि सभी मौजूद थे |

जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है वकील बंसीधर डोरा (जो बाद में क्लेम ऑफिसर भी रहे ), डॉ. चिमनलाल, डॉ. मोहन राम, हकीम बेलाराम, हकीम चेलाराम, गोसाईं बन्नुराम, गोसाईं रामचन्द्र, पंडित आलम चन्द आदि | मेरे पिता लाला मोतीराम चुटानी एक थोक विक्रेता थे | मूंगफली, तेल अव्वल दर्जा की डीलरशिप थी |

इस तेल का चलन बहुत कम होता था क्योंकि लोग देसी घी ज्यादा प्रयोग करते थे | कुछ गरीब मुस्लिम परिवार ही इस अव्वल दर्जा तेल का प्रयोग करते थे | उस समय मैं स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ता था और मेरे उस्ताद का नाम जिन्दवडा खान था |
जिसको डाकखाने का काम भी सौप रखा था |

गाँव में हिन्दुओं की सारी जातियां जैसे आहूजा, गाबा, सीकरी, चुटानी, माटा, चावला, डोरा आदि मौजूद थी | जहाँ तक मुस्लिम समुदाय का सवाल है तो उनमे आराई, बलूच, तेली, नाई, दरखान, कूटाने और फ़क़ीर आदि मौजूद थे | हिन्दू समुदाय में एक नम्बरदारी थी, जो केवल राम माटा नम्बरदार को मिली हुई थी | सभी सरकारी अहलकार नम्बरदार के घर आकर रुकते थे |

मेरा गाँव रेलवे से जुड़ा हुआ नहीं था | रेल सफर के लिए हमें लैया जाना पड़ता था | मेरा गाँव और लैया आमने-सामने थे | बीच में दरिया सिंध था, जिसका पाट कई किलोमीटर में फैला हुआ था जिसमें खुश्क और दरियाई भाग दोनों ही शामिल थे | दरियाई भाग किश्ती द्वारा आबूर किया जाता था और खुश्क भाग ऊंट की सवारी द्वारा | किश्ती इतनी बड़ी होती थी कि जिसमें कमरे, सहन और ऊँटों के रहने –बैठने का स्थान भी मौजूद होता था | इस इलाके का ज्यादातर व्यापार बाजरिया दरिया सिंध की मार्फ़त होता था |

यह समय वहुत ही अच्छा था, हिन्दू और मुसलमान मिलकर रहते थे | आपसी भाईचारा था | कई हिन्दू और मुसलमान पगड़ी बदल भाई बन जाते थे | खूब भाईचारा निभाया जाता था | खुशी, गमी और विवाह – शादी में आना – जाना था | शहरों में तो हिन्दू और मुसलमानों में व्यापार में भी सांझे होते थे | मेरे पिताजी की भी एक मुसलमान भाई कलंदर जट से व्यापारिक सांझेदारी थी |

दोनों मिलकर सरसों के खेत का सौदा करते थे | मेरे पिताजी रकम लगाते और कलंदर जट खेत की रखवाली करता | फसल पक जाने पर सरसों बोरियों में भरकर सुरक्षित स्थान पर रख देते थे |

बिकने के बाद लाभ के दोनों बराबर के हिस्सेदार होते | मुझे वह दिन बहुत अच्छी तरह याद है जब 14 अगस्त 1947 को एक नया देश पाकिस्तान नमूदार हुआ तो मुसलमानों ने बहुत बड़ा जुलूस निकाला जिसमें हिन्दू भी शामिल थे | मेरा घर गाँव के चौक पर स्थित था | जुलूस जाते हुए इस चौक पर रुका और वहां पर लड्डू बांटे गये | मैं स्वयं भी उस भीड़ से लड्डू लेकर आया था |

मेरी बस्ती में रेडिओ किसी घर पर नहीं था | दो दिन बासी अखबार पढ़ना पड़ता था जो कि डाक द्वारा बस्ती के कुछ गिने-चुने लोगों की पास आता था | अख़बारों में बंटवारे की बातें आने लगी | क्योंकि हिंदुस्तान दो भागों में बंट गया था | अख़बारों में हिन्दुओं के पलायन, डाकाजनी, लूटपाट की खबरें आने लगी | इसका असर हमारे इलाके पर भी होने लगा | दोनों समुदाय एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे |

हमारी बस्ती के सुनार बिरादरी के कुछ परिवारों ने वोहवा जाने की तैयारी की | मेरे परिवार ने भी उनके साथ मिलकर घर छोड़ने का मंसूबा बनाया | मेरे पिताजी ने अपने दोस्त कलंदर जट से कचावे सहित ऊँटों को लाने को कहा कि हम वोहवा का सफर कर सके |

निश्चित दिन वह ऊंट न लाकर स्वयं आया और लोगों को कहा कि हम आज सफर ना करे क्योंकि बाहर बदमाश आये हुए है और रास्ता सुरक्षित नहीं है | मेरे पिताजी ने तुरंत यह बात तैयारशुद बिरादरी को कही पर वह नहीं माने और कहा कि दिन में ऐसी कौन-सी मरह है वह रवाना हो गये |

दिन ढलते-ढलते यह सन्देश मिला कि उन पर कातिलाना हमला हुआ है और लगभग एक दर्जन लोग हलाक हो गये और बहुत से जख्मी हो गये है और माल-असबाब भी लूट लिया गया है | बस्ती में गम की लहर दौड़ गई और सभी लोग हक्के-बक्के और गहरी सोच में डूब गये | घर छोड़ना अब यकीनी हो गया | अजीब मंजर था जो लोग साथ हँसते, खेलते, मदरसे में पढ़े, अब जानी दुश्मन हो गये |

आने वाली रात दर्दनाक और भयानक साबित हुई | रात को हमारी बस्ती पर भी हमला हुआ अल्लाह हू अकबर, नारा ऐ तकबीर और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे जोर-जोर से सुनाई देने लगे | गर्मी का मौसम था लोग छतों पर सोते और सीढ़ी जो की लकड़ी की बनी होती थी उसे सुरक्षा कारणों से छतों के ऊपर खिंच लेते थे | मकानों की छतें आपस में मिली होती थी |

हमारे सभी पड़ोसी छत पर खड़े हो गये और सुरक्षित जगह जाने की सोचने लगे | हमारी बस्ती में हर चौक पर वजीरों को रोकने के लिए मोर्चे बने हुए थे | बस्ती के बीच में एक बहुत ऊँची बुर्ज थी | जिस पर सिविल गार्ड या बलोच लेवी के सिपाही मौजूद थे | गलियों की बजाये छतों से होकर जाने के योजना बनाई पर एक जगह सभी बुजुर्गों को कपड़ों से बांधकर उतरा गया | इसी प्रकार सभी चावला परिवार के घर पहुँचने में सफल हो गये |

वहाँ पहले से ही बहुत से परिवार पहुँच गये थे | उन दिनों डाका और लूटपाट का सन्देश भेजने का तरीका भी ख़ास था | उस शुआ की दिशा से यह अंदाजा हो जाता है कि डाकाजनी कहाँ हो रही है | रात को चावला परिवार के साथ गुजारी और पुलिस की आमद पर हम बाहर निकले और जानकारी मिली की आधा दर्जन हिन्दुओं का क़त्ल हो गये और बहुत से जख्मी हो गये |

जख्मियों की मरहम पट्टी डॉ. चिमनलाल ने की | कुछ जख्मी भी दम तोड़ गये | थानाध्यक्ष वोहवा ने ऐलान किया कि सभी हिन्दू परिवार वहोवा पहुंचे और वहाँ पर उनकी सुरक्षा की गारंटी लेता हूँ | बस्ती छोड़ने का दिन निश्चित हो गया और हम पुलिस की निगरानी में वहोवा पहुँच गये | भाड़े के ऊँटों का इन्तजाम पुलिस ने किया |

वहोवा थाने से संलग्न सभी बस्तियों के हिन्दू परिवार वहोवा पहुँच गये और वहाँ बहुत बड़ी भीड़ हो गई | थानाध्यक्ष घोड़े पर सवार होकर नगर में आये | सभी मुसलमानों को शाम होते ही निकाल थे और दरवाजे बंद हो जाते | मैं यहाँ पर श्री ढालू राम सडाना और आत्म प्रकाश सडाना के पिता श्री भवानी दास जिक्र करना चाहता हूँ | वह इस इलाके का बड़ा जमींदार और चौधरी माना जाता था वह रात को एस. एच. ओ. के साथ घोड़ों पर सवार होकर चारदीवारी के बाहर चक्कर लगाते और मोर्चे पर बैठे सिपाहियों को ख़बरदार करते |

इलाके की कुछ और हिन्दू बस्तियों में मुस्लिम, हिन्दू तनाव हुआ | परन्तु हमारा इलाका लगभग शांत रहा और कोई बड़ी वारदात नहीं हुई | बस्ती मम्मुरी में बड़ा तनाव हुआ | हिन्दू समाज खासकर सुनार बिरादरी ने मुसलमानों का मुकाबला किया और मोर्चा संभाले रखा और जब उनका असला खत्म हो गया तो उन्होंने अपनी जवान बच्चियों के सिर तलवारों से काट दिए और शेष ने भाग कर अपनी जान बचाई |

वोहवा में कुछ दिन ठहरने के बाद हमें ट्रकों में भर कर डेरा गाजी खान लाया गया | वहाँ हमारे सामान की तलाशी ली गई कि कहीं कोई हथियार तो नहीं है | हर परिवार को केवल एक ट्रंक, एक बिस्तर और बर्तनों की छोटी बोरी ले जाने की इजाजत थी | हम कुछ दिन डेरा गाजी खान में मुकीम तथा सुरक्षित रहे |

इसके बाद हमें हिन्दू मिलिट्री के ट्रकों में लादकर मुजफ्फरगढ़ ट्रान्सफर किया गया | हमारा कैंप रेलवे स्टेशन के सामने एक मैदान में था | यहाँ पर हिन्दू सिपाही हमारी सुरक्षा के लिए तैनात थे | इस दौरान हमारे कैंप पर भी एक रात हमला हुआ |

मिलिट्री के जवानों ने मोर्चा संभाला | हमले में दो हिन्दू मारे गये और छह हमलावर भी हमारे जवानों की गोली का निशाना बने |

मुजफ्फरगढ़ से हमें रेलगाड़ी ने बिठाकर भारत के लिए रवाना किया गया | यह बहुत दुखदाई, दर्दनाक और हृदयघात का समय था | हमें यकीन हो गया हम सब कुछ छोड़कर नए सिरे से भारत में बसने जा रहे है | अपना कदीमी घर छोड़कर कितना कठिन होता है | रेलगाड़ी में भी हम तो खौफ़जदा थे |

हर तरफ भरोसे और विश्वास का अभाव था | जब हमारी गाड़ी खानेवाल स्टेशन पर पहुंची तो सामने प्लेटफार्म पर नल से बेतहाशा पानी बह रहा था कुछ लोग पानी लेने के लिए ट्रेन से उतरना चाहते थे पर सिपाहियों ने उन्हें रोक दिया कहीं पानी में जहर न मिला हुआ हो | जैसे तैसे करके हमारी गाड़ी लाहौर पहुंची | कई घंटों तक हमारी ट्रेन को लाइन क्लियर नहीं दिया गया |

प्लेटफार्म पर मुसलमानों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी हमें अपने जीवन का अंत दिखाई देने लगा | पर हमारी सुरक्षा के लिए तैनात मिलिट्री के इंचार्ज ने सुझबुझ से काम लेते हुए ए. एस. एम की गर्दन पर बन्दूक की नोक पर लाइन क्लियर करवाई | अगला स्टेशन अटारी था जो कि भारत का हिस्सा था |

अटारी स्टेशन पर गाड़ी काफी देर तक रुकी रही और वहां के लोगों ने खासकर सिख भाईयों ने हमारा बहुत बड़ा स्वागत किया और और हमें सभी सुविधाएँ जैसे डॉक्टर, दूध, बिस्तर, कम्बल उपलब्ध करवाई | अब हम भारत भूमि पर थे और सुकून से थे |

हमारी गाड़ी 18 नवम्बर 1947 को हिसार पहुंची और इसके बाद हम गुड़गाँव आये और तब से यहाँ पर ही मुकीम है | यहाँ के निवासी यह समझते थे कि हम लूट-पिट कर आये है और हम सब भिखारी हो जायेंगे परन्तु हमने कठिन परिश्रम किया और यहाँ के मूल निवासी, हमारे परिश्रम को देख कर दंग रह गये कि हमने किस तरीके से अपने नए घर बसाए और मालामाल हो गये | हमारे समाज का एक भी व्यक्ति भीख मांगता हुआ नहीं दिखाई दिया |

Translated by Google 

Viral Sach – Gurugram: 1947 – I am a resident of Nutkani, my village had become a victim of river Sindhu Tugyani and after being ruined, it was settled in another place at a proper distance from the Indus river and at a safe place. Similarly, it is told about Dera Ghazi Khan that this village was also resettled with great care.

Its streets were straight and wide, standing at one end, the other end was clearly visible. Its streets used to cut each other at an angle of 90 degrees. This was a straight and long wide market, in which shops of grocery, cloth, confectioner, goldsmith, tailor and snuffbox were available.

In the village D.B. Middle School, Civil Dispensary and Gurudwara were present. Hindu settlements in the inner part of the village and Muslim population in the outer part. My village used to meet the needs of nearby small settlements like village Fateh Khan Tuman, Chuni. Katgarh, Kuhar etc. Lawyers, doctors, doctors, brahmins etc. were all present in my village.

Some of whose names are as follows: Advocate Bansidhar Dora (who later became Claims Officer), Dr. Chimanlal, Dr. Mohan Ram, Hakim Belaram, Hakim Chellaram, Gosain Bannuram, Gosain Ramchandra, Pandit Alam Chand etc. My father Lala Motiram Chutani was a wholesaler. Peanut oil was a top class dealership.

The practice of this oil was very less because people used more desi ghee. Only a few poor Muslim families used this top grade oil. At that time I was studying in the third class of the school and my teacher’s name was Jindvada Khan.
To whom the work of the post office was also handed over.

All castes of Hindus like Ahuja, Gaba, Sikri, Chutani, Mata, Chawla, Dora etc. were present in the village. As far as the Muslim community is concerned, Arai, Baloch, Teli, Nai, Darkhan, Kootane and Fakir etc. were present in them. There was a Nambardari in the Hindu community, which was available only to Ram Mata Nambardar. All the government officials used to come and stay at the Nambardar’s house.

My village was not connected by railway. We had to be carried for the train journey. My village and Laya were face to face. In the middle was the river Sindh, whose bank was spread over several kilometers, which included both dry and riverine parts. The riverine part was traversed by raft and the dry part by camel ride. The boat used to be so big that it had room, shelter and a place for the camels to sit. Most of the trade of this area used to be through Bajriya Darya Sindh.

This time was very good, Hindus and Muslims lived together. There was mutual brotherhood. Many Hindus and Muslims used to exchange turbans and become brothers. A lot of brotherhood was maintained. Happiness, sorrow and marriage – coming to the wedding – had to go. Hindus and Muslims used to share trade in the cities. My father also had a business partnership with Kalandar Jatt, a Muslim brother.

Together they used to deal in mustard fields. My father used to invest money and Kalandar Jat used to take care of the field. When the crop was ripe, they used to fill mustard in sacks and keep it in a safe place.

After selling, both would have equal share of the profit. I remember very well the day when a new country Pakistan became visible on 14th August 1947, Muslims took out a huge procession in which Hindus were also involved. My house was situated on the village square. The procession stopped at this square on its way and laddoos were distributed there. I myself also brought laddoos from that crowd.

There was no radio in any house in my colony. Had to read stale newspapers for two days which used to come by post to a few selected people of the township. The news of partition started appearing in the newspapers. Because India was divided into two parts. The news of exodus, dacoity and looting of Hindus started appearing in the newspapers. Its effect started affecting our area as well. Both the communities started looking at each other with suspicion.

Some families of the goldsmith community of our colony made preparations to go to Wohwa. My family also made a plan to leave the house together with him. My father asked his friend Kalandar Jat to bring camels with kachawe so that we could travel to Wohwa.

On a certain day he came himself without bringing a camel and told the people not to travel today because miscreants have come outside and the road is not safe. My father immediately told this to the prepared fraternity but they did not agree and said what kind of death is there in the day, he left.

Towards the end of the day, the news was received that there was a murderous attack on them and about a dozen people were killed and many were injured and goods and furnishings were also looted. A wave of sorrow ran through the township and everyone was dumbfounded and drowned in deep thought. Leaving home is now confirmed. It was a strange scene that people who used to laugh, play together, study in the madrasa, have now become known enemies.

The night that followed proved to be painful and terrifying. Our colony was also attacked at night. Slogans of Allah Hu Akbar, Nara-e-Takbeer and Pakistan Zindabad were heard loudly. It was summer, people used to sleep on the roofs and the ladder which was made of wood was pulled over the roofs for safety reasons. The roofs of the houses used to match each other.

All our neighbors stood on the terrace and started thinking of going to a safe place. Fronts were made at every square in our colony to stop the Wazirs. There was a very tall tower in the middle of the settlement. On which the soldiers of Civil Guard or Baloch Levy were present. Planned to go through the roofs instead of the streets, but at one place all the elders got down tied with clothes. Similarly, all were successful in reaching the Chawla family’s house.

Many families had already reached there. In those days, the way of sending the message of dacoity and looting was also special. From the direction of that shua, it can be guessed where the dacoity is taking place. Spent the night with the Chawla family and on the arrival of the police, we came out and got information that half a dozen Hindus were killed and many were injured.

Dr. Chimanlal did the dressing of the injured. Some of the injured also died. SHO Vahova announced that all Hindu families should reach Vahova and guarantee their safety there. The day of leaving the basti was fixed and we reached Vahova under the supervision of the police. The police arranged for hired camels.

Hindu families of all the settlements attached to Vahova police station reached Vahova and there was a huge crowd. The station chief came to the city riding a horse. All the Muslims were thrown out in the evening and the doors would be closed. Here I would like to mention Shri Bhawani Das, father of Shri Dhalu Ram Sadana and Atma Prakash Sadana. He was considered a big landlord and chaudhary of this area. H o. Riding on horses with him, used to go round outside the boundary wall and alert the soldiers sitting on the front.

Muslim-Hindu tension took place in some other Hindu settlements of the area. But our area remained almost peaceful and no major incident took place. There was great tension in Basti Mammuri. The Hindu society, especially the goldsmith community, fought the Muslims and kept the front and when their ammunition ran out, they cut off the heads of their young girls with swords and the rest saved their lives by running away.

After staying for a few days in Wohwa, we were loaded into trucks and brought to Dera Ghazi Khan. There our luggage was searched to see if there was any weapon. Each family was allowed to carry only one trunk, one bed and a small sack of utensils. We stayed safe and secure in Dera Ghazi Khan for a few days.

After that we were transferred to Muzaffargarh by being loaded into Hindu Military trucks. Our camp was in a field in front of the railway station. Hindu soldiers were stationed here for our security. During this, our camp was also attacked one night.

Military soldiers took charge. Two Hindus were killed in the attack and six attackers also became the target of bullets of our jawans.

From Muzaffargarh we were taken by train and sent to India. It was a time of great sadness, pain and heartbreak. We were convinced that we are going to leave everything and settle in India afresh. How difficult it is to leave your old home. We were scared even in the train.

There was a lack of trust and confidence everywhere. When our train reached Khanewal station, water was flowing wildly from the tap on the platform in front. Some people wanted to get off the train to take water, but the soldiers stopped them, lest poison was mixed in the water. Somehow our car reached Lahore. Our train was not given line clear for several hours.

The crowd of Muslims started gathering on the platform, we started seeing the end of our life. But the in-charge of the military deployed for our security, acted wisely, A.O. S. Got the line cleared at gunpoint on M’s neck. The next station was Attari which was a part of India.

The train stopped for a long time at Attari station and the people there especially the Sikh brothers gave us a very warm welcome and provided us with all the facilities like doctors, milk, beds, blankets. Now we were on the land of India and were at ease.

Our train reached Hisar on 18 November 1947 and after that we came to Gurgaon and have been living here ever since. The natives here thought that we had come looted and we would all become beggars but we worked hard and the natives here were amazed to see our hard work, how we built our new houses and got rich. Done | Not a single person of our society was seen begging.

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